Thursday 5 March 2015

सबके लिए जगह बनाना........................................................


इस बात की शुरुआत मैंने बहुत पहले कर दि थी. जब भी मेरे किसी दोस्त, लोग, कोई फ़ील्ड वर्क में क्लाइंट उन्हें हमेशा बात करने के लिए मेरी जरूरत महसूस होती थी. इसलिए अपनी cv में यह अबत डाल देना चाहती थी लेकिन लिखना मुश्किल था. पर कोई नहीं बात करने से भी तो पता चल ही जाता है.

मुझे अपने पडोसी, आंटी की तस्वीरे मेरे दिमाग में आती है. जब मै फेलोशिप के लिए जा रही थी तब अपनी दो दोस्त कह रहे थे की तुम जाओगी तो बात हम किससे करेगे? और जब भी मै लौटती थी घर के तरफ तब उनके साथ भी घंटो भर बाते होती थी की जब मै थी नही तब क्या-क्या उन दौरान होता था.

मुझे याद है की फेलोशिप के पहले मेरी अपनी उस दोस्त से मेरी हमेशा बात होती थी. वो बीमार होती थी. कुछ ज्यादा वो काम नही कर पाती थी. उसकी लव मैरिज हुआ था. दोनों में कभी-कभी झगड़ा होता था. फिर वो मेरे साथ बाते करती थी तो उसे अच्छा लगता था. लेकिन जब मै वहा से फेलोशिप के लिए चली गयी थी, कुछ महीनो बाद पता चला की उसका देहांत हो गया, उसके साथ मेरे नानी-दादी-बुआ भी एक के एक बाद गुजर गए. यह सुनकर अपने आप में मै कौसते चली गयी. लगा की फेलोशिप छोड़ देनी चाहिए लेकिन ऐसा न हुआ.

फेलोशिप से आने के बाद बहुत कुछ बदल गया. टिस में एडमिशन हो गया. पढाई शूर हुई. उसमे फील्ड वर्क यह एक सबसे बड़ा मायना था. और अपने टीचर्स के साथ और अपने दोस्तों के साथ जिदंगी की डेढ़ सारी बाते. फिर जब भी अपने फील्ड वर्क में कोई भी बच्चा, या कोई माँ मिले तो उनसे घंटो भर तक बाते होती थी. उसके बाद ऑब्जरवेशन होम में थी तो बच्चो की तो लाइन लग जाती थी उनके साथ बात करने के लिए उन्हें बहुत अच्छा लगता था. लेकिन पढाई में आने के बाद, बाते करने का मायना, उद्देश बदल रहा था. क्योंकि उसमे भी कई सारे बाते करने की तकनीक सीखी है जो सिर्फ बाते नहीं करता बल्कि अपने क्लाइंट को इस दिशा में ले जाता है जहापर पर जिदंगी को फिर एक बार जीने की रोशनी मिलती है, अपने आप को समझने को मौक़ा होता है.


तो यहा पर आने के बाद सोच ही लिया था, की जो कोई भी अपना दोस्त, फॅमिली के लोग उआ क्लाइंट अगर बात करना चाहते है उन्हें तो वक्त जरुर दिया जाएगा. उसमे कोई भी restriction न होगा बाते करने के लिए जो मन में आये बस बोल दियो.  

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