पिछले सेमेस्टर में, मै सरकारी अपस्ताल में फिल्ड वर्क के लिए जाती
थी, वहा पर अपनी हैसियत एक स्टूडेंट काउन्सलिंग साइकोलोजिस्ट की थी. लोगो से मिलते
थे उसने बातचीत और उनके बच्चो के लेकर तकलीफों को देखते हुए उसपर चर्चा करती थी.
वो दिन भी बड़े सुंदर और बेहद तकलीफ देने वाले भी जो बच्चो की सारी माताए उनके
बच्चो के तकलीफे, उनके घरेलु परेशानी को मेरे सामने अपने आसुं ओ को मेरे सामने
टपकाते थे. ऐसे वक्त में कुछ कहना बेहद मुश्किल होता है उन्हें सिर्फ सुन सकते है
और अपने समझदारी के छवि को उनके सामने रख सकती थी ताकि वे थोड़ा हल्का महसूस करे.
अभी तो कोई फिल्ड वर्क नहीं लेकिन आज खुद मै सरकारी अस्पताल में मरीज
बनकर गयी थी, वो फीलिंग भी अलग होती है, अपने इस कोर्स में आने से पहले तो मै कइ
बार गयी हु लेकिन इस बार तो बहुत अलग लग रहा था. जब मै खिड़की से १० रुपए वाली
पर्ची और केस पेपर के लिए कतार में खड़ी थी, तब मै अपने आप को मरीज साबित करने की
कोशिश थी लेकिन नहीं हो पा रहा था. क्योंकि अब आदत सी हो जाती है की दुनिया को अलग
तरीके से देखने की. की कौन कैसे खडा, है कौन क्या कर रहा है, लोगो के झगडे की कोई
कतार में घुसे तो उसे वे धमका या उन्हें गुस्से से बोल रहे थे. कुछ देर बात पंखे
के बंद होने का अहसास हुआ , तो सोचा चलो पंखा लगा देते है. लेकिन उस वक्त डर था की
कई मेरे कतार की जगह कोई और ना ले जाए तो अपने पीछे के मरीज को मैंने कहा की मै आ
रही हु. उसके कुछ देर बात देखा की एक महिला मेरे आगे घुस गयी पर वही कुछ नहीं बोला
ना की गुस्सा आया. उसके बाद और एक महिला घुसी. पीछे वाले लड़की ने कहा की कुछ बोलना
चाहिए लेकिन मैंने हँसकर टाल दिया, लेकिन न जाने कुछ देर बात मेरा भी मुह खुल गया
मै भी अपने आप के हक़ के लिए बोलने लगी की आप बिच में घुसे और और बहुत कुछ उन दोनों
औरत को मैंने बोला. तो आखिर में मरीज होने का अहसास आया. काफी थक चुकी थी कतार में
खड़े होकर. यहाँ वहा झाकने भी लगी थी की कोई और खिड़की खुले और जल्दी पर्ची और केस
पेपर मिल जाये. लेकिन ऐसा होना भी तो मुश्किल था. तो जिस बहाव में सब लोग जा रहे
थे वैसे मै भी जा रही थी.
अपने खुद के हक़ के लिए लड़ना बड़ा मुश्किल सा हो गया है. अब तो लगता है
की अपनी लड़ाई तो हर तरह के लोगो के साथ है ना की सरकार, या बड़े लोग. हर कोई वर्ग
के लोग इस लड़ाई में शामिल है. अगर हम ना कुछ बोले तो कौन कैसे हमें किस खाई में
डाल दे तो कुछ पता ना चले. तो जहा पर लग रहा है की अपने साथ कुछ गलत हो रहा है तो
जरुर अपने आवाज को उठाना है. और हो सके तो दुसरे के लिए भी तो उस वक्त उस विरूद्ध
पार्टियों को उनके हक़ के बारे में बताकर हम और भी किसी के लिए लड़ना आसान हो सकता
है लेकिन इसमें यह बात शामिल होने की जरूरत है की वो विरुद्ध पार्टी भी उसी ही
समस्या या माहोल में हो ताकि हक के लिए बोलना आसान हो. जो इस माहोल के बाहर हो
जाते है उनके साथ बहुत मुश्किल है. उस लड़ाई में कई सारे साधनों का इस्तेमाल करने
की जरूरत है ताकि अपने परिश्रम को मीठा फल मिल सके.
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